आँखोसे मुझे तकते हुए
तुम जो तलाशते हो खुदको
एक दायरा बन जाता है
तुम्हारे मेरे दरमियान
आँखे नम सी फिर और
वो पिघलता हुआ मंजर
दायरेसे निकलता वो लमहा
कहीं थम जाये बस
मैं वो लमहा जी लू
दामन मे बटोर लू
फिर लौट जाऊं
वही पुरानी भीड में
खुदको तुम्हारे पास छोड कर
मैं नही जानती
इस रिशते के मायने
ना कोई जूस्तजू है मुझे
ना ही कोई आरजू...
मैं तुम हूँ
तुम मैं हो
बस , इतना काफी हैं जीने के लिये !
- नेहा लिमये
No comments:
Post a Comment